अनुच्छेद 370 की प्रासंगिकता
कश्मीर में अलगाव दूर करने के लिए अनुच्छेद 370 हटाना जरूरी बता रहे हैं हरबंश दीक्षित
मोदी सरकार के मंत्री जितेन्द्र सिंह ने अनुच्छेद 370 की प्रासंगिकता पर एक बार पुन: बहस की शुरुआत कर दी है। इस पर स्वस्थ बहस का स्वागत करने के बजाय उमर अब्दुल्ला ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। यह ठीक नहीं है। किसी विषय पर स्वस्थ बहस लोकशाही की सबसे बड़ी ताकत होती है और संविधान के अनुच्छेद 370 सहित ऐसा कोई भी विषय नहीं है, जिसको बहस की स्वस्थ परंपरा से वंचित रखा जाना चाहिए।
उमर अब्दुल्ला जैसे कुछ लोग अनुच्छेद 370 को जम्मू-कश्मीर की ब्रह्मनाल के रूप में निरूपित करते हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसे अलगाववाद का मुख्य कारक मानते हैं। कश्मीरी विस्थापितों की दुर्दशा के मूल में वे अनुच्छेद 370 को ही मानते रहे हैं और आतंकवाद को निर्मूल करने के लिए अनुच्छेद 370 को हटाना जरूरी मानते हैं। लोकतंत्र का तकाजा है कि इन दोनों विपरीत विचारधाराओं पर एक स्वस्थ बहस हो, ताकि इनके गुण-दोष पर चर्चा की जा सके। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 कश्मीर को विशेष दर्जा देता है। रक्षा और विदेश नीति जैसे कुछ महत्वपूर्ण मामलों को छोड़कर बाकी सभी मामलों से संबंधित कानून को लागू करने के लिए जम्मू-कश्मीर सरकार की सहमति की जरूरत होती है। यह एकमात्र ऐसा राज्य है जिसका अलग संविधान है। कश्मीर के लोग भारत के किसी हिस्से में जमीन खरीद सकते हैं, लेकिन शेष भारत के लोगों को कश्मीर में यह अधिकार हासिल नहीं है।
जम्मू-कश्मीर के लोग भारत के नागरिक हैं, लेकिन शेष भारत के लोग जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं माने जाते। अनुच्छेद 370 को संविधान में विशेष परिस्थितियों से निबटने के लिए लिपिबद्ध किया गया था। पाकिस्तानी आक्रमण की पृष्ठभूमि में वहां के नेता शेख अब्दुल्ला की सलाह पर जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिया गया था। शायद यह उम्मीद रही हो कि आने वाले समय में हम धीरे-धीरे उसे मुख्यधारा में मिला लेंगे और जम्मू-कश्मीर भी दूसरे राज्यों की तरह भारत संघ में रच बस जाएगा, किंतु ऐसा नहीं हो सका। अनुच्छेद 370 का उपयोग जम्मू-कश्मीर के विलय की मजबूती के लिए होना चाहिए था, किंतु शेख अब्दुल्ला ने अपने हित में इसका उपयोग करते हुए धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर को कानून और संविधान के लिहाज से एक अलग द्वीप बना दिया।
अनुच्छेद 370 में दूसरी बातों के अलावा यह भी कहा गया है कि राष्ट्रपति, जम्मू-कश्मीर राज्य की सहमति से आदेश जारी करके भारत के संविधान के उपबंधों को जरूरी परिवर्तन के साथ जम्मू-कश्मीर के लिए भी लागू कर सकते हैं। यह व्यवस्था इसलिए की गई थी कि धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर पर भी देश के दूसरे हिस्से जैसी व्यवस्था की जाएगी, लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। राष्ट्रपति ने 1954 में कान्स्टीट्यूशन (अप्लीकेशन टु जम्मू-कश्मीर) ऑर्डर जारी करके भारी फेरबदल के साथ जम्मू-कश्मीर पर लागू कर दिया। यह आदेश जम्मू-कश्मीर को शेष हिस्से से जोड़ने के बजाय अलग करने के लिए ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है।
सन 1954 के राष्ट्रपति के आदेश में कई बातों के अलावा भारत के संविधान के अनुच्छेद 35 के बाद 35क जोड़ा गया है। यह केवल जम्मू-कश्मीर पर लागू होता है। इसमें कहा गया है कि भारत के संविधान में किसी प्रावधान के होते हुए भी जम्मू-कश्मीर राज्य की विधानसभा भारतीय संविधान के दायरे के बाहर जाकर भी कानून बना सकती है। वह राज्य के स्थायी निवासियों के संबंध में, जम्मू-कश्मीर में लोगों को रोजगार हासिल करने, वहां पर अचल संपत्ति खरीदने, राज्य में बसने, सरकार से छात्रवृत्ति या अन्य किसी मद में सहायता पाने के संबंध में अलग से कानून बना सकती है। इसमें यह भी कहा गया है कि राज्य सरकार के कानून के इस अधिकार पर भारत के संविधान में वर्णित मूल अधिकारों या दूसरे उपबंधों के उल्लंघन के बावजूद उन्हें वैध माना जाएगा और उस सीमा तक भारत का संविधान लागू नहीं होगा।
सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि जिस काम को संसद के पूर्ण बहुमत द्वारा नहीं किया जा सकता उसे एक आदेश जारी करके कर दिया गया है। संविधान में संशोधन के लिए हमारे संविधान के अनुच्छेद 368 में एक प्रक्रिया निर्धारित की गई है। केशवानंद भारती के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि संसद के संविधान संशोधन के अधिकार की अपनी सीमा है और इस तरह के संशोधनों द्वारा संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। संविधान को बचाए रखने के लिए जिस संशोधन को करने के संसद के अधिकार पर प्रतिबंध लगाए गए हैं, उनमें राष्ट्रपति के एक आदेश द्वारा संशोधन कर दिया गया है।
जम्मू-कश्मीर के मामले में लागू होने वाले अनुच्छेद 35क का व्यावहारिक प्रभाव यह है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा कानून बनाकर चाहे तो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के लोगों को वहां निवास करने सहित तमाम अधिकार दे सकती है, किंतु शेष भारत के लोगों को उनसे वंचित कर सकती है। शेष भारत के लोगों को वहां नौकरी करने या छात्रवृत्ति इत्यादि प्राप्त करने पर रोक लगा सकती है। इसी अधिकार का प्रयोग करते हुए वहां पर यह कानून बनाया गया है कि जम्मू-कश्मीर की लड़कियों का विवाह राज्य के बाहर होने पर वे अपने उत्तराधिकार सहित अन्य अधिकारों से वंचित हो जाएंगी। इसमें सबसे हैरान करने वाला पहलू यह है कि जम्मू-कश्मीर का लड़का यदि किसी विदेशी लड़की से विवाह करता है तो उस विदेशी को तो जम्मू-कश्मीर में तमाम विशेषाधिकार हासिल हो जाएंगे, लेकिन यदि वहां की बेटी किसी भारतीय नागरिक से विवाह कर लेती है तो वह तमाम अधिकारों से वंचित कर दी जाएगी।
अब जब केंद्र में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल गया है, उसकी अनुच्छेद 370 से जुड़ा वायदा पूरा करने की जिम्मेदारी होगी। इसके दो पहलू हैं। पहला संविधान में संशोधन से संबंधित है जबकि दूसरे का ताल्लुक सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों से है। बीते वषरें में अनुच्छेद 370 को सामाजिक और राजनीतिक रूप से संवेदनशील बना दिया गया है। कुछ तत्वों ने निहित स्वार्थवश इसे सांप्रदायिकता और धर्मविशेष से जोड़ दिया है। भाजपा को अपना वायदा पूरा करने के लिए केवल संविधान के शब्दों में परिवर्तन करने की ही जरूरत नहीं होगी, बल्कि उसे इन स्वार्थी तत्वों से भी निबटना होगा।
(लेखक विधि मामलों के जानकार हैं)
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बेवक्त विवाद
28-05-14
प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह के अनुच्छेद-370 को लेकर दिए गए बयान पर विवाद खडम हो गया है। जितेंद्र सिंह ने बाद में कहा कि उनके बयान को गलत नजरिये से पेश किया गया, लेकिन विवाद अभी चलेगा, ऐसा लगता है। राज्य मंत्री के बयान पर जम्मू-कश्मीर की तमाम पार्टियों के नेताओं की तीखी प्रतिक्रिया आई है। चूंकि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव बहुत दूर नहीं हैं, इसलिए सभी पार्टियां इस मामले को राजनीतिक मुद्दा बनाएंगी। लोकसभा चुनावों में बुरी तरह हार का सामना कर चुकी नेशनल कांफ्रेंस को बैठे-बिठाए एक मुद्दा इस विवाद ने दे दिया है, दूसरी ओर विपक्षी पीडीपी ने भी इस बयान की आलोचना की है। लोग पीडीपी को जम्मू-कश्मीर में भाजपा के संभावित सहयोगी की तरह देख रहे थे, हो सकता है कि ऐसे राजनीतिक समीकरण इससे प्रभावित हों। जितेंद्र सिंह पहली बार लोकसभा में जम्मू-कश्मीर के उधमपुर से जीतकर आए हैं और पहली ही बार में मंत्री बना दिए गए हैं। उधमपुर, जम्मू क्षेत्र में पड़ता है, जहां का राजनीतिक माहौल कश्मीर घाटी से बिल्कुल अलग है। भाजपा की भी घोषित नीति यह है कि अनुच्छेद-370 खत्म करके जम्मू-कश्मीर की विशेष हैसियत खत्म कर दी जाए। भाजपा के पूर्ववर्ती रूप भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी सन 1950-51 में जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे, और इसी दौरान उनकी मृत्यु हुई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चुनाव प्रचार के दौरान जम्मू-कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद-370 पर विचार करने की बात की थी। भले ही भाजपा की नीति हो, लेकिन नई सरकार बनने के दूसरे ही दिन इस मुद्दे को उठाना ठीक नहीं लगता। हो सकता है कि जितेंद्र सिंह अपने मतदाताओं को संदेश देना चाहते हों कि वे इस मुद्दे पर कितने गंभीर हैं, लेकिन यह मुद्दा इतना संवेदनशील और जटिल है कि इसे छेड़ना बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा है। इसका सैद्धांतिक पक्ष छोड़ भी दें, तो व्यावहारिक रूप से अनुच्छेद-370 को खत्म करना मौजूदा हालात में तकरीबन नामुमकिन है, क्योंकि इसे हटाने के लिए संसद में दो-तिहाई बहुमत से संविधान संशोधन करना होगा, फिर जम्मू-कश्मीर विधानसभा में दो-तिहाई बहुमत से इस संविधान संशोधन को पास करवाना होगा। कश्मीर घाटी के मौजूदा हालात के चलते ऐसा कोई भी कदम विस्फोटक साबित हो सकता है। व्यावहारिक नजरिया यह है कि पहले कश्मीर घाटी में हालात सामान्य करने की कोशिश की जाए, फिर ऐसी कोई बहस छेड़ी जाए। अगर घाटी में हालात सामान्य हो जाते हैं, तो शायद कश्मीर वासियों के लिए इस प्रावधान का कोई अर्थ बचेगा भी नहीं। वैसे भी धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद-370 के तहत मिली विशेष रियायतें खत्म हो रही हैं और घाटी के इधर या उधर इसका भावनात्मक असर ही ज्यादा है। फिलहाल सबसे बड़ी जरूरत कश्मीर में स्थिति सामान्य करने के लिए राजनीतिक पहल की है। पिछले बहुत लंबे अरसे से कश्मीर में कोई राजनीतिक पहल केंद्र सरकार ने नहीं की है और कश्मीर घाटी को सेना व सुरक्षा बलों के भरोसे छोड़ रखा है। ऐसा तब है, जब घाटी में हिंसा और आतंकवादी गतिविधियां बहुत घट गई हैं। भाजपा का जनाधार जम्मू क्षेत्र में है, कश्मीर घाटी में उसकी उपस्थिति नगण्य है, लेकिन केंद्र को व्यापक राष्ट्रीय नजरिये से इस पर सोचना चाहिए, न कि अपने जम्मू के जनाधार के नजरिये से। लगता है कि यह विवाद जितेंद्र सिंह की अनुभवहीनता से पैदा हुआ, इसके पीछे कोई दूरगामी नीति नहीं होगी और जम्मू-कश्मीर पर नई सरकार ज्यादा गंभीर और परिपक्व नीति अपनाएगी। ==============
नाहक उतावली
जनसत्ता 30 मई, 2014 :
जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को खत्म करने का मुद्दा भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से उठाती रही है। इस बार के लोकसभा चुनाव में भी उसके घोषणापत्र में यह वादा दोहराया गया। ऐसे में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह का कार्यभार संभालने के साथ ही अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को खत्म करने के संबंध में आया बयान अकारण नहीं माना जा सकता। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पर नाराजगी जाहिर की और जितेंद्र सिंह ने अपने बयान पर परदा डालने की कोशिश की, मगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तत्काल उनके पक्ष में उतर आया। शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने भी उनका बचाव किया। फिर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने जितेंद्र सिंह के बयान पर आपत्ति जाहिर की तो संघ के लोग उनके खिलाफ तीखी टिप्पणियां करने पर उतर आए। इससे यही जाहिर हुआ कि भाजपा के लिए यह मुद्दा उसकी प्राथमिकता सूची में है। अनुच्छेद तीन सौ सत्तर के औचित्य-अनौचित्य पर काफी बहसें हो चुकी हैं, संघ के लिए यह श्यामाप्रसाद मुखर्जी के समय से एक अहम विषय बना हुआ है, मगर हकीकत यह है कि इसे समाप्त करना आसान नहीं है। फिर इसे लेकर जिदपूर्वक और जल्दबाजी में उठाया गया कोई भी कदम घातक साबित हो सकता है। यह ठीक है कि इस अनुच्छेद को विशेष परिस्थितियों में तैयार किया गया था, उसे हटाने के बारे में किसी एक दल या संगठन का मत काम नहीं कर सकता। इसके लिए सर्वदलीय सहमति जरूरी होगी। किसी दल के पास बहुमत होना काफी नहीं है, इसमें जम्मू-कश्मीर के लोगों यानी वहां के दो तिहाई विधानसभा सदस्यों की सहमति भी आवश्यक है। नरेंद्र मोदी सरकार के लिए ऐसा कर पाना फिलहाल संभव नहीं है।
जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव नजदीक हैं, इसलिए इस मसले को छेड़ कर भाजपा ने नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी दोनों के लिए एक चुनावी मुद्दा थमा दिया है। इस लोकसभा चुनाव में जम्मू क्षेत्र में भाजपा ने जरूर अपनी मजबूत पकड़ का सबूत दिया है, पर कश्मीर के इलाके में पैठ बनाना उसके लिए बड़ी चुनौती है, जिसे वह पीडीपी के साथ गठजोड़ करके हासिल करने का प्रयास करेगी। इसलिए भी उसका अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को छेड़ना लाभदायी साबित नहीं हो सकता। बड़ी मुश्किल से घाटी में स्थितियां कुछ सुधरी हैं। अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को छेड़ना फिर से वहां का माहौल खराब कर सकता है। इससे अलगाववादी ताकतों को फिर अपने पांव पसारने का मौका मिलेगा। दूसरे, यह भी कि केवल पूरे देश में समान कानून लागू करने की गरज से हड़बड़ी में इस अनुच्छेद को खत्म करने का प्रयास किया गया तो वहां के संसाधनों के अतार्किक दोहन का खतरा पैदा हो सकता है, जैसा कि बहुत सारे पर्वतीय इलाकों में जमीन-जायदाद की खरीद से संबंधित कानूनों में ढील दिए जाने के कारण पैदा हो गया है। इसलिए जम्मू-कश्मीर में ज्यादा जरूरी मसला शांति व्यवस्था बनाए रखना, रोजगार के नए रास्ते खोलना और केंद्र सरकार के प्रति लोगों का भरोसा जीतना है। अगर इन पहलुओं को नजरअंदाज कर मोदी सरकार अपनी जिद को ऊपर रखेगी, तो नतीजे निस्संदेह खतरनाक हो सकते हैं।
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अनावश्यक बयान और विवाद
30, May, 2014, Friday
प्रधानमंत्री पद संभालने के दो दिन बाद ही नरेन्द्र मोदी को अपने मंत्रियों को सोच-समझकर बोलने की सलाह देनी पड़ी। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें यह सलाह राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह के अनुच्छेद 370 संबंधी बयान के कारण देनी पड़ी। पहली बार सांसद और पहली बार राज्यमंत्री बने जितेन्द्र सिंह ने अपने कार्यकाल के पहले दिन ही यह कहकर विवाद उत्पन्न कर दिया था कि मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए सभी पक्षों से बातचीत शुरू कर दी है। जब इस बयान पर विवाद खड़ा हुआ तो बाद में उन्होंने कहा कि मीडिया ने उनके बयान को गलत ढंग से पेश किया। उनके बयान पर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने तत्काल कड़ी आपत्ति जताई और अनुच्छेद 370 हटाने की बात को गैर जिम्मेदाराना और आधी-अधूरी जानकारी से भरी करार दिया था। उन्होंने साफ कह दिया कि अगर 370 हटी तो कश्मीर भारत का हिस्सा ही नहीं रहेगा। अब इस मसले पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी खुलकर मैदान में आ गया। आरएसएस के राम माधव ने यह कहते हुए मामले में और कड़वाहट भर दी कि क्या उमर अब्दुल्ला कश्मीर को अपनी पैतृक संपत्ति समझते हैं? जम्मू-कश्मीर में विपक्षी दल पीडीपी ने भी जितेंद्र सिंह के बयान की आलोचना की है। कांग्रेस, जदयू, भाकपा आदि दलों ने भी इस बयान की निंदा की है। गौरतलब है कि दिसम्बर में जम्मू की एक सभा में नरेन्द्र मोदी ने धारा 370 पर बहस होनी चाहिए, यह कहकर विवाद खड़ा कर दिया था। लेकिन उसके बाद उनकी चुनावी सभाओं में विकास और सुशासन ये दो मुद्दे ही प्रमुखता से उठाए गए और माना जा रहा है कि जनता ने इनके आधार पर ही भाजपा को पूर्ण बहुमत दिया। इसके पहले भी जब एनडीए की सरकार थी, तब भी भाजपा को समान नागरिक संहिता, अनुच्छेद 370 और राम मंदिर के भावनात्मक मुद्दे किनारे रखने पड़े थे और देश के लिए जरूरी मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित किया गया था। अब भी जनता की नयी सरकार से यही अपेक्षा है कि वह अनावश्यक विवादों में देश का ध्यान उलझाने की जगह ठोस बातों पर चर्चा करें।
देश की आम जनता के लिए अनुच्छेद 370 का मसला उतना महत्वपूर्ण नहींहै, जितना महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास आदि हैं। गुरुवार को ली गई कैबिनेट बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसी दिशा में 10 सूत्रीय एजेंडा पेश किया है। रही बात अनुच्छेद 370 की, तो यह याद रखना होगा कि जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए मुद्दा भावनात्मक व संवेदनशील है। इसके ऐतिहासिक कारण हैं। लेकिन यह वक्त इतिहास की पेचीदगियों में उलझने की जगह वर्तमान की सुध लेने और भविष्य की योजनाएं बनाने का है। अनुच्छेद 370 के मुद्दे के सैद्धांतिक पक्ष को कुछ समय के लिए अलग रख कर व्यावहारिक पक्ष पर विचार किया जाए, तब भी यही समझ आता है कि इसे खत्म करना लगभग असंभव है क्योंकि इसके लिए संसद में दो-तिहाई बहुमत से संविधान संशोधन करना होगा, फिर जम्मू-कश्मीर विधानसभा में दो-तिहाई बहुमत से इस संविधान संशोधन को पास करवाना होगा। लेकिन इस वक्त एक विवादास्पद, भावनात्मक मुद्दे को उठाने से जम्मू-कश्मीर में बड़ी मुश्किल से कायम हो रही राजनीतिक स्थिरता, स्थायित्व और शांति के भंग होने की आशंका बलवती होगी। अलगाववादी ताकतों को सिर उठाने का मौका मिलेगा। जितेंद्र सिंह जम्मू-कश्मीर के उधमपुर से सांसद निर्वाचित हुए हैं, जो जम्मू में आता है। जम्मू की राजनैतिक, सामाजिक और भावनात्मक स्थिति कश्मीर घाटी से काफी अलग है। जितेंद्र सिंह के उपरोक्त बयान से यह साबित होता है कि उन्हें राजनीतिक परिपक्वता लाने और सही अर्थों में जनप्रतिनिधि बनने के लिए और प्रयास करना होगा। लंबे समय से कश्मीर घाटी सेना व सुरक्षा बलों के साए में है। केेंद्र सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए कि वहां स्थिति सामान्य बनाए, ताकि आमजन चैन से जीवन बिता सकेें। भाजपा की पहचान बन चुके हिंदुत्ववादी एजेंडे अगर वक्त-बेवक्त इसी तरह उठाए जाते रहेंगे तो प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी को अनावश्यक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। उम्मीद है वे स्वयं इससे बचेंगे और देश को भी बचाएंगे।
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जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को खत्म करने का मुद्दा भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से उठाती रही है। इस बार के लोकसभा चुनाव में भी उसके घोषणापत्र में यह वादा दोहराया गया। ऐसे में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह का कार्यभार संभालने के साथ ही अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को खत्म करने के संबंध में आया बयान अकारण नहीं माना जा सकता। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पर नाराजगी जाहिर की और जितेंद्र सिंह ने अपने बयान पर परदा डालने की कोशिश की, मगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तत्काल उनके पक्ष में उतर आया। शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने भी उनका बचाव किया। फिर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने जितेंद्र सिंह के बयान पर आपत्ति जाहिर की तो संघ के लोग उनके खिलाफ तीखी टिप्पणियां करने पर उतर आए। इससे यही जाहिर हुआ कि भाजपा के लिए यह मुद्दा उसकी प्राथमिकता सूची में है। अनुच्छेद तीन सौ सत्तर के औचित्य-अनौचित्य पर काफी बहसें हो चुकी हैं, संघ के लिए यह श्यामाप्रसाद मुखर्जी के समय से एक अहम विषय बना हुआ है, मगर हकीकत यह है कि इसे समाप्त करना आसान नहीं है। फिर इसे लेकर जिदपूर्वक और जल्दबाजी में उठाया गया कोई भी कदम घातक साबित हो सकता है। यह ठीक है कि इस अनुच्छेद को विशेष परिस्थितियों में तैयार किया गया था, उसे हटाने के बारे में किसी एक दल या संगठन का मत काम नहीं कर सकता। इसके लिए सर्वदलीय सहमति जरूरी होगी। किसी दल के पास बहुमत होना काफी नहीं है, इसमें जम्मू-कश्मीर के लोगों यानी वहां के दो तिहाई विधानसभा सदस्यों की सहमति भी आवश्यक है। नरेंद्र मोदी सरकार के लिए ऐसा कर पाना फिलहाल संभव नहीं है।
जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव नजदीक हैं, इसलिए इस मसले को छेड़ कर भाजपा ने नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी दोनों के लिए एक चुनावी मुद्दा थमा दिया है। इस लोकसभा चुनाव में जम्मू क्षेत्र में भाजपा ने जरूर अपनी मजबूत पकड़ का सबूत दिया है, पर कश्मीर के इलाके में पैठ बनाना उसके लिए बड़ी चुनौती है, जिसे वह पीडीपी के साथ गठजोड़ करके हासिल करने का प्रयास करेगी। इसलिए भी उसका अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को छेड़ना लाभदायी साबित नहीं हो सकता। बड़ी मुश्किल से घाटी में स्थितियां कुछ सुधरी हैं। अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को छेड़ना फिर से वहां का माहौल खराब कर सकता है। इससे अलगाववादी ताकतों को फिर अपने पांव पसारने का मौका मिलेगा। दूसरे, यह भी कि केवल पूरे देश में समान कानून लागू करने की गरज से हड़बड़ी में इस अनुच्छेद को खत्म करने का प्रयास किया गया तो वहां के संसाधनों के अतार्किक दोहन का खतरा पैदा हो सकता है, जैसा कि बहुत सारे पर्वतीय इलाकों में जमीन-जायदाद की खरीद से संबंधित कानूनों में ढील दिए जाने के कारण पैदा हो गया है। इसलिए जम्मू-कश्मीर में ज्यादा जरूरी मसला शांति व्यवस्था बनाए रखना, रोजगार के नए रास्ते खोलना और केंद्र सरकार के प्रति लोगों का भरोसा जीतना है। अगर इन पहलुओं को नजरअंदाज कर मोदी सरकार अपनी जिद को ऊपर रखेगी, तो नतीजे निस्संदेह खतरनाक हो सकते हैं।
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